भारत चीन तनातनी के बीच jun 2020 चमोली में चीन सीमा पर अंतिम गावँ नीती का दौरा, 1962 की यादें संजोह के रखी हैं
नीती गाव भारत चीन सीमा पर अंतिम गाँव-
- भारत चीन लद्दाख विवाद में हुई खूनी झड़प के साथ ही चमोली जिले में चीन से सटी सीमाओं में सैन्य आवाजाही तेज हो गयी हैं सेना की आवाजाही देखकर ही पता चल जाता है सीमा पर चीन फिर दगाबाजी कर रहा है हालात कुछ ठीक नंही है सेना पूरी सतर्क है तो इस बीच हम भी जायजा लेने पहुचे चीन सीमा पर अंतिम गावँ नीती मलारी घाटी भ्रमण पर, देश के अंतिम गाव नीती गाव पहुचा तो देखा गावँ में भले ही संचार स्वास्थ्य जैसी व्यवस्था आज भी नही है लेकिन ग्रामीण बुर्जगों ने tv लगाया हुआ है यहां बैठकर सब लोग एक साथ देश विदेश की खबरों से रुबरु होते हैं अपनी अपनी चर्चा पंचायत घर के चौक में बैठकर करते रहते हैं, गांव में युवा तो नही मिले मगर उम्रदराज बुजुर्ग लोग गावँ में मौजूद है बल्कि जब भी नीती जाने का अवसर मिलता है तो यही लोग यहां मिलते हैं युवा यहां बहुत कम दिखाई देते हैं, इनके साथ बुजुर्ग महिलाएं भी यही रहती है शीतकाल में माइग्रेशन प्रवासी गाव हैं तो 6 महीने यहां के लोग निचली जगहों पर चमोली के समीप या देहरादून या अन्य अलग अलग जगहों पर रहते हैं, परंतु गर्मियों में नीती मलारी घाटी पहुच जाते हैं, इस समय भी चीन भारत विवाद चल रहा है तो गाव में भी सभी लोगों में यही बातचीत हो रही है कुछ दिन पूर्व भारतीय सेना के साथ हुआ झड़प के बाद ग्रामीण गुस्से में हैं तो चीन सीमा पर अंतिम गाव है यो 1962 की यादें भी यहां बुजुर्गों को भली भांति याद है, तब भी सेना की मदद में जुट गए थे आज भी पूरी तरह तैयार हैं,
- 1962 में भारत चीन युद्ध एक महीने चला था जैसे ही अग्रिम चौकियां बर्फबारी के साथ निचली जगहों पर पहुची थी वेसे ही चीन ने धोखेबाजी से युद्ध छेड़ दिया 20 अक्टूबर से 21 नवम्बर तक महज एक महीना का युद्ध हुआ, जैसे ही लद्दाख मैकमोहन रेखा में युद्ध सुरु हुआ, चमोली में भी इसका असर दिखा, उस समय चमोली में भारत तिब्बत व्यापार जोरो पर होता था नीती मलारी घाटी व्यापार के लिए बहुत फेमस थी, यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन के साथ भारत तिब्बत व्यापार ही था, हालांकि उस दौर में सड़क मार्ग न होने से कर्णप्रयाग चमोली के बीच से तिब्बत तक नीती मलारी घाटी के लोग पैदल घोड़े भेड़ बकरियों के साथ महीनों चलकर तिब्बत पहुचते थे वहां से लौटते थे, जगह जहग पड़ाव बने हुए थे, पड़ाव दर पड़ाव पैदल चलकर व्यपार होता था, जहां आज नो मेंस लैंड है उसे बड़ाहोती कहा जाता है वहां बड़ा सा होती मैदान (बुग्याल) आज भी है इसीलिए उसे बाड़ाहोती कहा जाता है वही पर एक होती गाड़ (नाला) भी है जहां व्यापारी अपना सामान रखकर आराम करते थे दोनो देशों के व्यापारी यहां कुछ समय रुकते थे फिर कोई इधर तो कोई उधर निकलता था, भारत तिब्बत के लोगों में बहुत गहरी मित्रता थी,
1962 युद्ध स्थानीय की जुबानी -
- 20 अक्टूबर 1962 को जब भारत चीन का युद्ध शुरू हुआ वैसे ही भारतीय सेना हर चीन से लगने वाली सीमा पर बढ़ने लगी अक्टूबर का महीना होने के चलते 1962 में नीीती मलारी के भोटिया जनजाति के लोग माइग्रेशन करके निचली जगहों पर आ चुके थे लेकिन 20 अक्टूबर 1962 को चीनी सेना ने लद्दाख में और मैकमोहन रेखा के पार एक साथ हमले शुरू किये जिसके साथ युद्ध छिड़ गया था भारतीय सेना को अपनी हर चीन से लगने वाली सीमा को सुरक्षित करना था या यूं कहें स्थिति युद्ध की थी ऐसे में सरकार द्वारा नीती मलारी घाटी हर इंसान को भारतीय सेना के साथ जरूरी सामान पहुचने ओर मदद करने के आदेश हुए क्योंकि इन लोगों को व्यापार के तहत सारे रास्ते भली-भांति पता था इसलिए पूरे के पूरे नीति घाटी के लोग घोड़े खच्चर के साथ अनुकूल मौसम में भी नंदप्रयाग से भारतीय सेना का सामान पैदल रास्तों से अंतिम बॉर्डर तक पहुंचाने में जुट गए भारी बर्फीले रास्तों का भी सामना करना पड़ा, उस समय भारतीय सेना के साथ बॉर्डर के अंतिम चौकी तक पहुंचे हालांकि तब तक युद्ध विराम हो चुका था लेकिन चीन के धोखे का कोई भरोसा नहीं था इसलिए यहां भारतीय सेना उस समय से मुस्तैद थी 3 महीने तक जवानो के साथ स्थानीय भी लगातार डटे रहे,
-1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान चमोली जिले के नीती मलारी घाटी के लोग घोड़े-खच्चर पर सैन्य सामान लादकर न केवल अग्रिम चौकियों तक गए, बल्कि वहां जवानों के साथ पूरे चार माहीने तक डटे रहे, उस दौरान सर्दियों के दिन थे नीती घाटी के लोग सर्दियों में चमोली के पास कौड़िया गांव में प्रवास करते हैं और गर्मियों में वापस नीती लौट जाते हैं। उन दिनों चीन ने आक्रमण किया तो यहां भी सीमा पर सतर्कता बढ़ाई गई। हालांकि यहां युद्ध नहीं हुआ था, लेकिन सेना की तैनाती बढाई गई। सर्दियों का मौसम था और भारी बर्फबारी के कारण रास्तों का भी पता नहीं चल रहा था। तब बाहर से आ रहे सैनिकों को सीमा तक पहुंचाने का काम नीती मलारी घाटी के लोगों ने ही किया था। सभी ग्रामीण अपने घोड़े-खच्चरों पर सैनिकों का सामान लादकर सीमा तक गए। यहां मौजूद लोग कहते हैं उस समय नवंबर 1962 में सैनिकों के साथ सीमा के लिए रवाना हुए थे और फरवरी तक वहीं रहे। उस समय चमोली के समीप कौड़िया से बड़ाहोती तक पहुंचने में ही उन लोगों को 20 से 25 दिन लग गए थे।
- हम आज नीती में 79 वर्ष के बुजुर्ग व्यक्ति नारायण सिंह राणा से मिले उन्होंने हमे बताया यह देश का अंतिम गाव है 1962 तक तिब्बत व्यापार होता था पशुपालन और व्यापार ही हम लोगों का रोजगार था, बड़ाहोती के रास्ते उन लेजाकर तिब्बत जाते थे तिब्बत से मुख्यतः नमक लेकर वपास आते थे लेकिन 62 के बाद सब बन्द हो गया हम लोगों ने भी पशुपालन बन्द कर दिया, जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया उसके बाद व्यपार पूरी तरह बंद हो गया 1962 हमारे लिए व्यपार चोपट का वो दौर था जो आज तक वपास नही लौट पाया, तब भी चीन पर हमको बहुत गुस्सा था आज भी चीन धोका करता है हमे चीन को सबक सिखाने की जरूरत है,
नारायण सिंह राणा -
- वही हम नीती गाव के ही दूसरे बुजुर्ग कुंदन सिंह से मिले जो 1962 में 16 साल के थे बताते हैं 1962 का युद्ध छिड़ा तो सरकार का आदेश हुआ सेना के जवानों की मदद करने के लिए उस समय भी कुंदन सिंह युवा थे ग्रामीणों के साथ सेना की मदद में जुट गए थे बड़ाहोती पास तक सेना का सामान लाना लेजाने में ग्रामीणो के साथ जुट गए, लेकिन कुंदन सिंह बताते हैं चीन ने 1962 के युद्ध के बाद हमारे लोगों का मुख्य व्यवसाय भारत तिब्बत व्यापार बन्द करवा दिया या यूं कहें, की पूरी तरह से बर्बाद हो गए सभी लोगों का व्यापार का सामान तिब्बत में छूट गया, तब इनके पिताजी भारत तिब्बत व्यापार करते थे, कुंदन सिंह पिताजी के साथ ही व्यापार सिख रहे थे व्यापार के पड़ाव जानने की कोशिश कर रहे थे,
कुन्दन सिंह राणा-
- अब हम नीती गाव के खुशहाल सिंह खाती से मिले खुशहाल सिंह इस समय 2020 में 79 वर्ष के हैं उस समय 18 वर्ष के थे होंगे खुशहाल सिंह बताते हैं कि 1962 का युद्ध हुआ तो हम लोग अपने घोड़े बकरी में समान रखकर सेना के साथ बड़ाहोती के होती ग्राउंड पहुचे हम हर अंतिम पोस्ट तक सेना के साथ गए हम लोग उस समय पूरी तरह से सेना की मदद की, हालांकि वह यह भी बताते हैं कि 1962 का युद्ध यहां नही हुआ था लेकिन युद्ध होने के साथ ही भारतीय सेना ने सभी चीन से लगी चौकियों सहित हर पोस्ट को सुरक्षा के मध्यनजर विपरीत मौसम में भी सुरक्षित किया था अक्टुबर 1962 से फरवरी 1963 तक हम लोग बर्फीले मौसम में बड़ाहोती में सेना की मदद के लिए और भारतीय सेना चीन से निपटने के लिए डटी रही थी,
खुशहाल सिंह खाती -
- वही 1962 की युद्ध के दौरान जिन्होंने बॉर्डर तक सेना के साथ सफर तय किया था वो थे नीती गाव के रुद्र सिंह राणा आज इनकी उम्र 78 वर्ष है रुद्र सिंह बताते हैं 1962 में मेरी उम्र 15 या 16 साल रही होगी युद्ध के साथ हुमारे लिए एमरजेंसी जैसी लग गयी थी नवम्बर से फरवरी का महीना था उस दौरान हम निचली जगहों पर थे क्योंकि यहां बर्फबारी वे साथ ही हम लोग निचली जगहों पर आ जाते हैं, फिर नीती मलारी घाटी में कोई नही रहता लेकिन आदेश हुआ चीन ने एक तरफ अटैक कर दिया आप लोगों को सेना की मदद करनी है विषम परिस्थिति में भी हम लोग अपने घोड़े बकरी के साथ आये जिनके पास घोड़े खच्चर नही थे उनके आदमी सेना की मदद में जुटे, सिर्फ नीती ही नही बल्कि पूरी नीती घाटी के लोगों ने सेना के हाथ से हाथ मिलाकर साथ दिया, रुद्र सिंह भले ही उम्रदराज हो गए हैं लेकिन चीन की हरक़तों को देखकर कहते हैं भले ही आज मेरी अवस्था वैसी नही लेकिन हम आज भी सेना की मदद के लिए तैयार हैं,
रुद्र सिंह राणा -
- चमोली जिले में चीन से सटी सीमा निती मलारी घाटी में भोटिया जनजाति के लोग रहते हैं, नीती घाटी में गाव के नाम इस तरह - 1-नीति, 2-गमशाली, 3- बम्पा 4- फरकिया 5- मेहर गाव 6- कैलास पुर , 6- मलारी, 7- कोशा, 8- झेलम, 9- द्रोणागिरी, 10- कागा, 11- गरपक, 12- रविंग, ये गाव हमेशा शीतकालीन प्रवास में निचली जगहों पर आ जाते हैं, 1962 तक तिब्बत से नमक का व्यपार होता था यहां से ऊंन का व्यपार होता था, उस दौर में नमक और ऊन का व्यपार मुख्य था, यही नही बल्कि निति मलारी घाटी के लोगों के मकान तिब्बत में आज भी हैं लेकिन 1962 के बाद जहां व्यपार ठप्प हुआ वही जो जहां था वही रह गया यहां के लोगों के मकान तिब्बत में छूट गए, 1962 युद्ध ने जहां इन लोगों के तिब्बत से भाईचारे के संबध को खत्म किया वही व्यापार बन्द होने से लोगों ने पशुपालन भी छोड़ दिया, ...............................