Saturday, 20 June 2020

भारत चीन तनातनी के बीच jun 2020 चमोली में चीन सीमा पर अंतिम गाव नीती का दौरा, 1962 की यादें संजोह के रखी हैं,

भारत चीन तनातनी के बीच jun 2020 चमोली में चीन सीमा पर अंतिम गावँ नीती का दौरा, 1962 की यादें संजोह के रखी हैं


नीती गाव भारत चीन सीमा पर अंतिम गाँव-
- भारत चीन लद्दाख विवाद में हुई खूनी झड़प के साथ ही चमोली जिले में चीन से सटी सीमाओं में सैन्य आवाजाही तेज हो गयी हैं सेना की आवाजाही देखकर ही पता चल जाता है सीमा पर चीन फिर दगाबाजी कर रहा है हालात कुछ ठीक नंही है सेना पूरी सतर्क है तो इस बीच हम भी जायजा लेने पहुचे चीन सीमा पर अंतिम गावँ नीती मलारी घाटी भ्रमण पर, देश के अंतिम गाव नीती गाव पहुचा तो देखा गावँ में भले ही संचार स्वास्थ्य जैसी व्यवस्था आज भी नही है लेकिन ग्रामीण बुर्जगों ने tv लगाया हुआ है यहां बैठकर सब लोग एक साथ देश विदेश की खबरों से रुबरु होते हैं अपनी अपनी चर्चा पंचायत घर के चौक में बैठकर करते रहते हैं, गांव में युवा तो नही मिले मगर उम्रदराज बुजुर्ग लोग गावँ में मौजूद है बल्कि जब भी नीती जाने का अवसर मिलता है तो यही लोग यहां मिलते हैं युवा यहां बहुत कम दिखाई देते हैं, इनके साथ बुजुर्ग महिलाएं भी यही रहती है शीतकाल में माइग्रेशन प्रवासी गाव हैं तो 6 महीने यहां के लोग निचली जगहों पर चमोली के समीप या देहरादून या अन्य अलग अलग जगहों पर रहते हैं, परंतु गर्मियों में नीती मलारी घाटी पहुच जाते हैं, इस समय भी चीन भारत विवाद चल रहा है तो गाव में भी सभी लोगों में यही बातचीत हो रही है कुछ दिन पूर्व भारतीय सेना के साथ हुआ झड़प के बाद ग्रामीण गुस्से में हैं तो चीन सीमा पर अंतिम गाव है यो 1962 की यादें भी यहां बुजुर्गों को भली भांति याद है, तब भी सेना की मदद में जुट गए थे आज भी पूरी तरह तैयार हैं,


- 1962 में भारत चीन युद्ध एक महीने चला था जैसे ही अग्रिम चौकियां बर्फबारी के साथ निचली जगहों पर पहुची थी वेसे ही चीन ने धोखेबाजी से युद्ध छेड़ दिया 20 अक्टूबर से 21 नवम्बर तक महज एक महीना का युद्ध हुआ, जैसे ही लद्दाख मैकमोहन रेखा में युद्ध सुरु हुआ, चमोली में भी इसका असर दिखा, उस समय चमोली में भारत तिब्बत व्यापार जोरो पर होता था नीती मलारी घाटी व्यापार के लिए बहुत फेमस थी, यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन के साथ भारत तिब्बत व्यापार ही था, हालांकि उस दौर में सड़क मार्ग न होने से कर्णप्रयाग चमोली के बीच से तिब्बत तक नीती मलारी घाटी के लोग पैदल घोड़े भेड़ बकरियों के साथ महीनों चलकर तिब्बत पहुचते थे वहां से लौटते थे, जगह जहग पड़ाव बने हुए थे, पड़ाव दर पड़ाव पैदल चलकर व्यपार होता था, जहां आज नो मेंस लैंड है उसे बड़ाहोती कहा जाता है वहां बड़ा सा होती मैदान (बुग्याल) आज भी है इसीलिए उसे बाड़ाहोती कहा जाता है वही पर एक होती गाड़ (नाला) भी है जहां व्यापारी अपना सामान रखकर आराम करते थे दोनो देशों के व्यापारी यहां कुछ समय रुकते थे फिर कोई इधर तो कोई उधर निकलता था, भारत तिब्बत के लोगों में बहुत गहरी मित्रता थी,

1962 युद्ध स्थानीय की जुबानी -

- 20 अक्टूबर 1962 को जब भारत चीन का युद्ध शुरू हुआ वैसे ही भारतीय सेना हर चीन से लगने वाली सीमा पर बढ़ने लगी अक्टूबर का महीना होने के चलते 1962 में नीीती मलारी के भोटिया जनजाति के लोग माइग्रेशन करके निचली जगहों पर आ चुके थे लेकिन 20 अक्टूबर 1962 को चीनी सेना ने लद्दाख में और मैकमोहन रेखा के पार एक साथ हमले शुरू किये जिसके साथ युद्ध छिड़ गया था भारतीय सेना को अपनी हर चीन से लगने वाली सीमा को सुरक्षित करना था या यूं कहें स्थिति युद्ध की थी ऐसे में सरकार द्वारा नीती मलारी घाटी हर इंसान को भारतीय सेना के साथ जरूरी सामान पहुचने ओर मदद करने के आदेश हुए क्योंकि इन लोगों को व्यापार के तहत सारे रास्ते भली-भांति पता था इसलिए पूरे के पूरे नीति घाटी के लोग घोड़े खच्चर के साथ अनुकूल मौसम में भी नंदप्रयाग से भारतीय सेना का सामान पैदल रास्तों से अंतिम बॉर्डर तक पहुंचाने में जुट गए भारी बर्फीले रास्तों का भी सामना करना पड़ा, उस समय भारतीय सेना के साथ बॉर्डर के अंतिम चौकी तक पहुंचे हालांकि तब तक युद्ध विराम हो चुका था लेकिन चीन के धोखे का कोई भरोसा नहीं था इसलिए यहां भारतीय सेना उस समय से मुस्तैद थी 3 महीने तक जवानो के साथ स्थानीय भी लगातार डटे रहे,

-1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान चमोली जिले के नीती मलारी घाटी के लोग घोड़े-खच्चर पर सैन्य सामान लादकर न केवल अग्रिम चौकियों तक गए, बल्कि वहां जवानों के साथ पूरे चार माहीने तक डटे रहे, उस दौरान सर्दियों के दिन थे नीती घाटी के लोग सर्दियों में चमोली के पास कौड़िया गांव में प्रवास करते हैं और गर्मियों में वापस नीती लौट जाते हैं। उन दिनों चीन ने आक्रमण किया तो यहां भी सीमा पर सतर्कता बढ़ाई गई। हालांकि यहां युद्ध नहीं हुआ था, लेकिन सेना की तैनाती बढाई गई। सर्दियों का मौसम था और भारी बर्फबारी के कारण रास्तों का भी पता नहीं चल रहा था। तब बाहर से आ रहे सैनिकों को सीमा तक पहुंचाने का काम नीती मलारी घाटी के लोगों ने ही किया था। सभी ग्रामीण अपने घोड़े-खच्चरों पर सैनिकों का सामान लादकर सीमा तक गए। यहां मौजूद लोग कहते हैं उस समय नवंबर 1962 में सैनिकों के साथ सीमा के लिए रवाना हुए थे और फरवरी तक वहीं रहे। उस समय चमोली के समीप कौड़िया से बड़ाहोती तक पहुंचने में ही उन लोगों को 20 से 25 दिन लग गए थे।

- हम आज नीती में 79 वर्ष के बुजुर्ग व्यक्ति नारायण सिंह राणा से मिले उन्होंने हमे बताया यह देश का अंतिम गाव है 1962 तक तिब्बत व्यापार होता था पशुपालन और व्यापार ही हम लोगों का रोजगार था, बड़ाहोती के रास्ते उन लेजाकर तिब्बत जाते थे तिब्बत से मुख्यतः नमक लेकर वपास आते थे लेकिन 62 के बाद सब बन्द हो गया हम लोगों ने भी पशुपालन बन्द कर दिया, जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया उसके बाद व्यपार पूरी तरह बंद हो गया 1962 हमारे लिए व्यपार चोपट का वो दौर था जो आज तक वपास नही लौट पाया, तब भी  चीन पर हमको बहुत गुस्सा था आज भी चीन धोका करता है हमे चीन को सबक सिखाने की जरूरत है,
नारायण सिंह राणा - 
- वही हम नीती गाव के ही दूसरे बुजुर्ग कुंदन सिंह से मिले जो 1962 में 16 साल के थे बताते हैं 1962 का युद्ध छिड़ा तो सरकार का आदेश हुआ सेना के जवानों की मदद करने के लिए उस समय भी कुंदन सिंह युवा थे ग्रामीणों के साथ सेना की मदद में जुट गए थे बड़ाहोती पास तक सेना का सामान लाना लेजाने में ग्रामीणो के साथ जुट गए, लेकिन कुंदन सिंह बताते हैं चीन ने 1962 के युद्ध के बाद हमारे लोगों का मुख्य व्यवसाय भारत तिब्बत व्यापार बन्द करवा दिया या यूं कहें, की पूरी तरह से बर्बाद हो गए सभी लोगों का व्यापार का सामान तिब्बत में छूट गया, तब इनके पिताजी भारत तिब्बत व्यापार करते थे, कुंदन सिंह पिताजी के साथ ही व्यापार सिख रहे थे व्यापार के पड़ाव जानने की कोशिश कर रहे थे,
कुन्दन सिंह राणा-

- अब हम नीती गाव के खुशहाल सिंह खाती से मिले खुशहाल सिंह इस समय 2020 में 79 वर्ष के हैं उस समय 18 वर्ष के थे होंगे खुशहाल सिंह बताते हैं कि 1962 का युद्ध हुआ तो हम लोग अपने घोड़े बकरी में समान रखकर सेना के साथ बड़ाहोती के होती ग्राउंड पहुचे हम हर अंतिम पोस्ट तक सेना के साथ गए हम लोग उस समय पूरी तरह से सेना की मदद की, हालांकि वह यह भी बताते हैं कि 1962 का युद्ध यहां नही हुआ था लेकिन युद्ध होने के साथ ही भारतीय सेना ने सभी चीन से लगी चौकियों सहित हर पोस्ट को सुरक्षा के मध्यनजर विपरीत मौसम में भी सुरक्षित किया था अक्टुबर 1962 से फरवरी 1963 तक हम लोग बर्फीले मौसम में बड़ाहोती में सेना की मदद के लिए और भारतीय सेना चीन से निपटने के लिए डटी रही थी,
खुशहाल सिंह खाती - 

- वही 1962 की युद्ध के दौरान जिन्होंने बॉर्डर तक सेना के साथ सफर तय किया था वो थे नीती गाव के रुद्र सिंह राणा आज इनकी उम्र 78 वर्ष है रुद्र सिंह बताते हैं 1962 में मेरी उम्र 15 या 16 साल रही होगी युद्ध के साथ हुमारे लिए एमरजेंसी जैसी लग गयी थी नवम्बर से फरवरी का महीना था उस दौरान हम निचली जगहों पर थे क्योंकि यहां बर्फबारी वे साथ ही हम लोग निचली जगहों पर आ जाते हैं, फिर नीती मलारी घाटी में कोई नही रहता लेकिन आदेश हुआ चीन ने एक तरफ अटैक कर दिया आप लोगों को सेना की मदद करनी है विषम परिस्थिति में भी हम लोग अपने घोड़े बकरी के साथ आये जिनके पास घोड़े खच्चर नही थे उनके आदमी सेना की मदद में जुटे, सिर्फ नीती ही नही बल्कि पूरी नीती घाटी के लोगों ने सेना के हाथ से हाथ मिलाकर साथ दिया, रुद्र सिंह भले ही उम्रदराज हो गए हैं लेकिन चीन की हरक़तों को देखकर कहते हैं भले ही आज मेरी अवस्था वैसी नही लेकिन हम आज भी सेना की मदद के लिए तैयार हैं,
रुद्र सिंह राणा - 

- चमोली जिले में चीन से सटी सीमा निती मलारी घाटी में भोटिया जनजाति के लोग रहते हैं, नीती घाटी में गाव के नाम इस तरह - 1-नीति, 2-गमशाली, 3- बम्पा 4- फरकिया 5- मेहर गाव 6- कैलास पुर , 6- मलारी, 7- कोशा, 8- झेलम, 9- द्रोणागिरी, 10- कागा, 11- गरपक, 12- रविंग, ये गाव हमेशा शीतकालीन प्रवास में निचली जगहों पर आ जाते हैं, 1962 तक तिब्बत से नमक का व्यपार होता था यहां से ऊंन का व्यपार होता था, उस दौर में नमक और ऊन का व्यपार मुख्य था, यही नही बल्कि निति मलारी घाटी के लोगों के मकान तिब्बत में आज भी हैं लेकिन 1962 के बाद जहां व्यपार ठप्प हुआ वही जो जहां था वही रह गया यहां के लोगों के मकान तिब्बत में छूट गए, 1962 युद्ध ने जहां इन लोगों के तिब्बत से भाईचारे के संबध को खत्म किया वही व्यापार बन्द होने से लोगों ने पशुपालन भी छोड़ दिया, ...............................

Tuesday, 12 November 2019

महज बद्रीनाथ के द्वार बंद होने से बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद नहीं होते हैं बल्कि वर्षों से आ रही पौराणिक परंपरा! देवताओं और मनुष्य के बीच की पूजा के लिए होते हैं भगवान बद्रीविशाल के कपाट बंद,

महज बद्रीनाथ के द्वार बंद होने से बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद नहीं होते हैं बल्कि वर्षों से आ रही पौराणिक परंपरा! देवताओं और मनुष्य के बीच की पूजा के लिए होते हैं भगवान बद्रीविशाल के कपाट बंद,

 

 

बहूनि सन्ति तीर्थानि, दिवि भूमौ रसासु च,
बदरी सदृशं तीर्थ न भूतं न भविष्यति।।
     

भारतवर्ष के चारधामो में सर्वश्रेस्ठ धाम बद्रीनाथ धाम के द्वार (कपाट) बंद होने से बद्रीनाथ के कपाट बंद नहीं होते हैं बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद होने के लिए पूरे विधि विधान से विजयदशमी के दिन देवताओं और मनुष्यों के बीच पंचायत बैठती हैहालांकि मानवों द्वारा बद्रीनाथ धाम के सभामंडप में विद्वानों द्वारा मुहूर्त निकाला जाता है और देवताओं द्वारा देवलोक में, बद्रीनाथ में कब कपाट बंद होंगे इसके लिए पूरा विधि-विधान से दिन निकाला जाता है समय निकाला जाता है 1-1 सेकंड का शुभ मुहूर्त देखा जाता है तब जाकर भगवान की पूजा देवताओं को शोपने का मुहूर्त निकाला जाता है बद्रीनाथ धाम की विशेश महिमा यह है कि यहां 6 महीने मनुष्य द्वारा पूजा की जाती है और 6 महीने देवताओं के द्वारा पूजा की जाती है, ग्रीष्म काल में मानव यहां भगवान बद्रीविशाल की पूजा करते हैं और शीतकाल में देवताओं द्वारा पूजा की जाती है, यहां के पुजारी दक्षिण के नंबूदरी लोग होते हैं हालांकि बद्रीनाथ जी का मंदिर उत्तर में स्थित है, यह परम्परा शंकराचार्य जी के काल से चली आ रही है और दक्षिण के नंबूदरी लोगों को शंकराचार्य के वंसज कधन जाता है, यही यहां के मुख्य पुजारी होते हैं और भगवान बद्रीनाथ जी ये सालिगराम विग्रह को सिर्फ पुजारी ही छू सकते हैं, 
 
vijay dashmi panchayat 
 
 

वर्षों से आ रही परंपरा के अनुसार भगवान बद्रीविशाल के कपाट बंद होने की पूरी परंपरा पौराणिक काल से चली आ रही है यहां भगवान बद्रीविशाल के कपाट बंद होने की अलग परंपरा है जहां कपाट बंद होने से पूर्व देश के अंतिम गांव माणा की कुंवारी कन्याओं द्वारा कपाट बंद होने के दिन सुबह से दोपहर तक ऊन की कंबल बनाई जाती है तो कपाट बंद होने के बाद भगवान बद्री विशाल को कुंवारी कन्याओं द्वारा बनाई गई कंबल से ढका जाता है इस पर पूरी तरह से घी का लेप लगाया जाता है और यह भगवान बदरीनाथ को शीतकाल में ठंड से बचाने के लिए किया जाता है। और तब जाकर कपाट बंद होते हैं वही बद्रीविशाल के कपाट बंद होने से पूर्व मां लक्ष्मी को भगवान बद्री विशाल के साथ बद्रीश पंचायत में विराजमान किया जाता है हालांकि माँ लक्ष्मी बद्रीविशाल के साथ विराजमान ये दर्शन श्रद्धालुओं को नही होते हैं, इसकी परंपरा भी बहुत अलग होती है यहां के मुख्य पुजारी रावल जी जब मां लक्ष्मी को बद्री विशाल के साथ विराजमान करते हैं तो खुद रावल जी मां लक्ष्मी के सखी रूप रखकर महालक्ष्मी के मंदिर में जाते हैं इस दौरान रावल जी खुद महिला वस्त्र पहनकर महिला के रूप में रहते हैं और उसके बाद भगवान बद्रीविशाल के कपाट बंद किए जाते हैं जैसे ही कपाट बंद होते हैं सबसे भावुक पल यह होता है इस समय रावल जी 6 महीने बाद भगवान बद्री विशाल से अलग हो रहे होते हैं और अब 6 महीने बाद भगवान बद्रीविशाल से मिलना होता है जिस कारण रावल जी खुद मंदिर के गर्भगृह से उल्टे पैर तो बाहर आते हैं लेकिन उनके आंखों के आंसू रुक नहीं पाते हैं यह दृश्य सबसे लंबा चलता है मंदिर के गर्भ ग्रह से रावल जी के कमरे पर आने तक मंदिर समिति के लोग श्रद्धालु हर कोई रावल जी को पकड़ कर क्योंकि वह उल्टे पैर चल रहे होते हैं इसलिए उन्हें पकड़कर उन्हें उनके कमरे तक पहुंचाया जाता है इसी के साथ भगवान बद्रीविशाल के कपाट भी शीतकाल के लिए बंद होते हैं लेकिन पूरे कपाट बंद होने के दौरान यह सब से ज्यादा भावुक पल होता है जिसमें जिसमें भगवान मनुष्य से 6 महीने के लिए दूर हो रहे होते हैं और इसका भक्त और भगवान के बीच का रिश्ता क्या होता है यह सब इस समय के दर्शन से पता चलता है जहां मुख्य पुजारी की आंखों में आंसू होते हैं वही मंदिर समिति के कर्मचारी सहित श्रद्धालुओं के आंखों में भी आंसू देखने को मिलते हैं आज भी बद्रीनाथ धाम में सैकड़ों वर्षों से चली आ रही परंपरा जीवित है और इसी पल को देखने के लिए देश के कोने कोने से श्रद्धालु बद्रीनाथ धाम कपाट बंद के अवसर पर पहुंचते हैं कपाट बंद होने के बाद बद्री विशाल की पूजा देवताओं के हाथ में चली जाती हैं और यहां कपाट बंद के दिन जो दीपक जलता रहता है वह दीपक कपाट खुलने के दिन भी उसी तरह जलता रहता है जो यह बताता है कि यहां शीतकाल में भी पूजा निरंतर जारी थी, 1200 साल पुराना बद्रीनारायण का मंदिर कई बार उजड़ा और कई बार बना लेकिन इस परंपरा पर आज तक कोई आंच नहीं आई है, और आज भी नियमानुसार यहां यह अध्भुत अकल्पनीय अविश्वसनीय परम्परा देखने को मिलती है,
 
mukhy pujari rawal ji 





शीतकाल में यहां के मुख्य पुजारी भगवान नारद जी होते हैं और बद्रीनाथ जी की बद्रीश पंचायत पूरी तरह से बदल जाती है बद्रीनाथ में जहां ग्रीष्म काल में बद्री विशाल के साथ उद्धव जी और कुबेर जी बद्रीश पंचायत में विराजमान होते हैं तो मां लक्ष्मी मंदिर के बाहर सभामंडप में स्थित लक्ष्मी मंदिर में विराजमान होती हैं लेकिन कपाट बंद के बाद बद्रीश पंचायत में भगवान बद्री विशाल के साथ मां लक्ष्मी बद्रीनाथ जी के मंदिर के अंदर विराजमान होती हैं और भगवान कुबेर और उद्धव जी बद्रीनाथ मंदिर से बाहर आ जाते हैं और पाण्डुकेस्वर मैं 6 महीने तक विराजमान रहते हैं यह इस लिए भी होता है क्योंकि कुबेर जी और उद्धव जी भगवान बद्री विशाल के बड़े भाई हैं और पहाड़ों की परंपरा के अनुसार जेठ (पति के बड़े भाई को जेठ कहते हैं) के सामने बहू उनके साथ नहीं बैठ सकती है वही परंपरा बद्रीनाथ मंदिर में देखने को मिलती है यहां मंदिर से माँ लक्ष्मी के जेठ उद्धव की और कुबेर जी मंदिर से बाहर निकलते हैं और मां लक्ष्मी भगवान बद्रीविशाल के साथ विराजमान होती है
 
udhav ji 
 
 kuber ji
 

बद्रीनाथ धाम जिस तरह सतयुग का धाम कहा जाता है यहां सतयुग में भगवान नारायण स्वयं भक्तों दर्शन देते थे तो त्रेता मैं यहां पर सिर्फ साधु संतों को भगवान दर्शन देते थे और कलयुग में यहां भगवान शालिग्राम की शिला पर वुराजमान विग्रह के रूप में मूर्ति रूप में भक्तों को दर्शन देते हैं भगवान विष्णु की विग्रह शालिग्राम शिला पर विराजमान है और यहां हर वर्ष लाखों श्रद्धालु भगवान बद्रीविशाल के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं अब यहां कपाट बंद होने की तैयारी पूरी हो चुकी है सबसे पहले भगवान गणेश जी के कपाट बंद होंते हैं यानी कि गणेश जी की पूजा सबसे पहले देवताओं के पास शुरू होगी बद्रीनाथ धाम में गणेश जी की पूजा कपाट बंद होने से 5 दिन पूर्व बंद किए जाते हैं वहीं इसका उलट भगवानों के पास बद्री विशाल की पूजा जाने से पहले 5 दिन पहले देवताओं के पास सबसे पहले गणेश जी की पूजा का जिम्मा दिया जाता है, जिसके बाद दूसरे दिन यहां बद्रीनाथ में स्थित आदिकेदार के कपाट बंद होते हैं, तीसरे दिन यहां खड़ग पुस्तक वेद ऋचाओं का पाठ बन्द होता है, और चौथे दिन माँ ओएक्ष्मी पूजन और मुख्य पुजारी रावल जी द्वारा स्त्री रूप रखकर माँ लक्ष्मी को न्यौता दिया जाता है, और अंतिम दिन भगवान मा लक्ष्मी बद्रीश पंचायत में विराजमान होते ही बद्रीनाथ जी के कपाट बंद हो जाते हैं ,
 
dhrmadhikari badrinath pandit sri bhuwan chandr uniyal ji 
 
 

Sunday, 15 October 2017

विश्व धरोहर फूलों की घाटी (the valley of flowers)

विश्व धरोहर फूलों की घाटी (the valley of flowers) विलुप्त होने के कगार पर ! फूलों की घाटी पर मंडरा रहा है खतरा,  250 प्रजाति के फुल हो चुके हैं विलुप्त !



जी हा हम बात कर रहे हैं वर्ड हेरिटेज फूलों की घाटी की जहाँ धीरे धीरे फुल विलुप्त हो रहे हैं हर वर्ष फूलों की प्रजाति गायब हो रही है हमेशा प्रकीर्ति प्रेमियों की पसंद रहने वाली जगह फूलों की घाटी एक जबरदस्त बीमारी से जूझ रही है , प्रकीर्ति प्रेमियों के लिए यह बहुत बुरी खबर है लेकिन 1985 से फूलों की घाटी इस बीमारी से ग्रसित है अगर ऐसा ही रहा तो बहुत जल्द फूलों की घाटी में फुल नहीं हमे सिर्फ घास मिलेगी और यहाँ आने वाला पर्यटक फूलों को देखकर उत्साहित नहीं बल्कि घास देख कर खुद को ठगा हुआ ,महसूस करेगा ,

क्या है फूलों की घाटी ....

87.5 वर्ग क्षेत्रफल मे फूलों घाटी की खोज 1931 मे प्रसिद्ध ब्रिटिश पर्वतारोही फ्रैंक स्मिथ ने की थी। कॉमेट पर्वतारोहण के बाद रास्ता भटक कर वे यहां पहुंचे। यहां फूलों की सौन्दर्य देख मंत्रमुग्ध हो गये। और कुछ दिन घाटी की हसीनवादियों मे बिताये। उन्होने यहां से फूलों के सैंपल अपने साथ ले गये और वैली ऑफ़ फ्लावर नाम से किताब लिखी। जिसने पूरी दुनिया मे तहलका मचाया। तभी से घाटी को नयी पहचान मिली। प्रकृति की इस अनमोल खजाने से मारग्रेट लेगी मे अंतत प्रभावित थी। चार साल यहां बिता कर इसी प्रकृति मे विलिन हो गयी। घाटी की जैवविविधता के लिए पहचानी जाती है पुण्पावती नदी की कल-कल,झर-झर झरते झरने,फूलों की घाटी सौन्दर्य अपने आप में बहुत खुबसूरत घाटी पर अब किसी की नजर लग गयी है जिस कारन अब घाटी के दिन आने वाले समय में बहुत बुरे होने वाले हैं,

वैज्ञानिको ने क्यों जताई चिंता घाटी खत्म होने का अंदेशा ......

फूलो की घाटी में अपना ही एक फूल शूल बन गया  है। यह फूल फूलों की घाटी इतनी तेजी से फैल रहा कि पार्क प्रशासन की इसकी रोकथाम की तमाम इंतज़ामात भी बौना साबित हो रही है। हम बात कर रहे फूलों की घाटी में सफेद रंग का फूल पॉलीगोनम की। जो सम्पूर्ण फूलों की घाटी की जैवविविधता के लिये खतरा बन गया है। नासूर बने इस झाड़ीनुमा फूल ने फूलों की घाटी के सैकड़ो प्रजाति के फूलो को खत्म कर अन्य प्रजाति के फूलो के अस्तित्व खतरे के जद मे है। इस पॉलीगोनम के घाटी मे विस्तार से घाटी की जैवविविधता पर ग्रहण लग गया है। घाटी मे जिस तेजी से पांव पसार रहा है। और लगभग आधी घाटी को अपना आगोश मे ले लिया है। इन दिनों फूलों की घाटी मे जिधर नजर दौड़ाओ उधर पॉलीगोनम के सफेद फूल नजर आ रहे है। फूलो की घाटी मे जिस तेजी से पॉलीगोनम का झाड़ीनुमा फूल फूलो की घाटी मे जिस तेजी से पांव पसार रहा है। वही बेज्ञानिकों का मानना है की पोलिगोनम को नहीं रोका गया तो वो दिन दूर नही जब फूलों की घाटी सिर्फ पॉलीगोनम की घाटी बनकर रह जाएगी ,

फूलों की घाटी में 250 से अधिक प्रजाति के फुल हो गए विलुप्त ! 

1982 में फूलों की घाटी को रास्ट्रीय पार्क बनाया गया गया और वर्ष 2005 में फूलों की घाटी को विस्वा धरोहर घोषित किया गया था लेकिन घाटी में 25 वर्षों में 250 से अधिक प्रजाति लुप्त हो गयी है विश्व धरोहर फूलों की घाटी में 521 अलग अलग किस्म के फुल होते थे सभी फुल जुलाई और अगस्त इन 2 माह में यहाँ देखे जाते थे जिन्हें देखने विदेशी पर्यटको के साथ देशी पर्यटक भी आते थे लेकिन अब यहाँ 300 से भी कम किस्म के ही फुल देखने को मिल रहे हैं जिस कारन अब बेज्ञानिक भी चिंतित हैं और उनका कहना है की बहुत जल्द फूलों की घाटी विलुप्त हो जाएगी , हालाँकि पोलिगोनम को हटाने के लिए पार्क प्रसाशन द्वारा नेपालियों को लगाकर हटाने का कार्य किया जा रहा है लेकिन यह बेज्ञानिक तरीका नहीं है और उनका कहना है की इस तरह से पोलिगोनम बढेगा न की कम होगा ,

1982 तक केसे यहाँ 521 किस्म के फुल होते थे ?

वर्ष 1982 में रास्ट्रीय पार्क बनाने के बाद फूलों की घाटी में चरवाहों के जाने पर पाबन्दी लगा दी गयी चरवाहे यहाँ मई और जून में जाते थे और जून मध्य तक वापसी कर देते थे उस दौरान यहाँ मई और जून के महीने में भेड़ बकरी पोलिगोनम की घास को मई और जून में खा देते थे और जुलाई और अगस्त में यहाँ 521 किस्म फुल खिल जाते थे फूलों की लाइफ अधिक से अधिक 15 दिन की होती है 2 महीने में यहाँ 521 किस्म के फुल अपनी पूरी जिन्दगी जी लेते थे उसके बाद फिर से यहाँ पोलिगोनम होता था जो की अगली बार फिर भेड़ बकरी मई जून में साफ़ कर देती थी जिससे की यहाँ जुलाई अगस्त के महीने में फुल आसानी से खिल जाते थे लेकिन अब पार्क प्रसाशन जुलाई अगस्त में ही पोलिगोनम हटाने का कार्य कर रही है जिससे फूलों के खिलने के वक्त में ही यहाँ फूलों  से अधिक पोलिगोनम खिल रहा है जिस कारण यहाँ साल दर साल फूलो की प्रजाति ख़तम हो रही है ,

क्या है पोलिगोनम ?


पोलिगोनम एक तरह की घास वाला फुल है जो की साल डर साल फूलों की घाटी में फ़ैल रहा है और इसके कारण घाटी में हर तरफ पोलिगोनम ही दिखाई दे रहा है और बाकि के फूल पोलिगोनम के कारन जमीन के अन्दर ही दम तोड़ रहे हैं फूलों की घाटी में दुनिया के अनेकों फूल की प्रजाति पायी जाती थी लेकिन अब पोलिगोनम के कारन 250 से अधिक प्रजाति अपना अस्तित्व खो चुकी है ,

फ्रैंक स्मिथ की खोजी हुई घाटी पोलिगोनम की घाटी में तब्दील हो गयी , 


1931 में जिस फूलों की घाटी की खोज 
फ्रैंक स्मिथ ने की थी वह आज नहीं रह गयी है घाटी तो है लेकिन फूलों की नहीं घास की घाटी में सुकुड कर रह गयी है फूलों की घाटी की सची तस्वीर आज देखि जा रही है हालाँकि पर्यटक यहाँ अनेक सपने देख फूलों का दीदार करने आते हैं लेकिन अब यहाँ फुल नहीं सिर्फ पोलिगोनम की घाटी रह गयी है ,

 कमल नयन सिलोड़ी 

Monday, 28 September 2015

माता मूर्ति मेला माँ और बेटा का अद्भुत मिलन।

बद्रीनाथ में माता मूर्ति का मेला , बामन द्वादशी पर होता है माँ पुत्र का मिलन भगवान् बद्रीविशाल पैदल तिन किलोमीटर जाते है माँ से मिलने ,

नर हो या नारायण हर एक के लिये माता का स्थान सर्वोपरि होता है यह परम्परा आज से नहीं बल्कि सतुयग से निभाई जा रही है इसी का प्रत्यक्ष उदाहरण है माता मूर्ति मेला,इस मेले के तहत भगवान बद्रीविशाल जी माता मूर्ति से मिलने के लिये माता मूर्ति धाम उनके स्थान पर जाते है क्या है माता मूर्ति को लेकर पूरी परम्परा व मान्यता, आज से मंदिर के मुख्य्पुजारी रावल जी अलकनंदा नदी को पार कर सकते हैं कपाट खुलने से अभी तक रावल जी अलकनंदा नदी को पार नहीं कर सकते थे ,
वीओं1- सतयुग में सहस्त्र कवच का बरदान पाने के बाद जब दुरदंभ नाम के राक्षस ने सृष्टि पर उत्पात मचाना शुरु किया तो उसका बध करने के लिये भगवान विष्णु ने धर्म की पत्नी मूर्ति के गर्भ से नर और नारयण के रूप में जन्म लिया था और बद्रिकाश्रम क्षैत्र मे तप करने के बाद दुरदंभ नाम के राक्षस का बध किया था मान्यता है कि इस स्थान पर एक दिन का तप करने के एक हजार वर्ष के तप के बराबर फल की प्राप्ति होती है।

बामन द्वादशी के पर्व पर बद्रीनाथ धाम में सुबह की पूजा अर्चना के बाद रावल जी की उपस्थिति में उद्दव जी भगवान बद्रीविशाल के प्रतिनिधि के रूप में माता मूर्ति से मिलने बद्रीकाश्रम के बाम भाग मूर्तिधाम पहुचतें है इस दौरान हजारो की संख्या में श्रद्दालु भी इस यात्रा में शामिल होते है और ये भी मान्यता है कि आज के दिन के पश्चात रावल जी पंचशिला से बाहर  धाम में अन्यत्र भी जा सकते है

माता मूर्ति : बद्रीनाथ धाम हिन्दुओ के प्रसिद्ध धाम श्री बद्रीनाथ से तीन किलोमीटर दूर माता मूर्ति का मंदिर है । माता मूर्ति भगवान बद्रीविशाल जी की माता है । जहाँ वर्ष में एक बार बड़ा ही सुन्दर विशाल मेला लगता है । माता मूर्ति महोत्सव एक धार्मिक आयोजन है जिसमें नर-नारायण अपनी माता मूर्ति से मिलने जाते हैं अनादिकाल से चली आ रही इस धार्मिक परंपरा में देश के ही नहीं बल्कि विदेशों से भी श्रद्धालु आते हैं। इस धार्मिक आयोजन के बाद मुख्य पुजारी अलकनंदा नदी पार कर देव दर्शनी तक आ जा सकते हैं। मान्यता है कि जब नर-नारायण ने अपनी माता की श्रद्धा भाव से सेवा की तो इससे खुश होकर माता मूर्ति ने उन्हें वर मांगने को कहा। इसपर नर- नारायण ने माता मूर्ति से घर बार छोड़कर तपस्वी बनने का वरदान मांगा तो मां परेशान हो गई। लेकिन वह अपने को रोक नहीं पाई। इसलिए माता को उन्हें वचन देना ही पड़ा। जब वर्षों तक तपस्या में लीन रहने पर वे वापस नहीं आए तो माता खुद उनकी खोज में बदरीकाश्रम पहुंचीं। उनकी हालात देख वे काफी दुखी हुईं बाद में नर-नारायण के आग्रह पर माता मूर्ति ने भी माणा गांव के ठीक सामने एकांत स्थान में तपस्या शुरू कर दी तब माता ने उन्हें कहा कि तुम वर्ष में एक बार मुझसे मिलने जरूर आओगे। तब से नर- नारायण वर्ष में एक बार माता मूर्ति से मिलने यहां आते हैं ,
इस मेले के अवसर पर हर देश विदेश से आया हुआ श्रद्धालु भगवान् बद्रीविशाल की इस यात्रा में सामिल होता है और बद्रीनाथ जी के साथ हर सर्धालू माता मूर्ति के दर्शन के लिए जाता है

इस अवसर पर सुबह दस बजे से तिन बजे तक बद्रीनाथ जी का मंदिर बंद रहता है और आज के दिन भगवान् बद्रीनाथ जी माँ की गोद में ही भोग खाते हैं और वही भगवान का अभिषेक भी माता की गोद में ही होता है ,

जोशीमठ में फुलकोठ मेला शिव पार्वती का अद्धभुत मिलन।

अद्भुत आस्था परम्परा सभ्यता और संस्कृति का चतुष्कोणीय भव्य दर्शन । जोशीमठ में फुलकोठ , ब्रहम कमल के रूप में आते हैं शिव, पार्वती के रूप में माँ चंडिका अदभुत मिलन जोशीमठ के नरसिंह मंदिर और रविग्राम के चंडिका देवी मंदिर में यहाँ अर्धनारीश्वर अवतार ब्रहम कमल के रूप में मिलेंगे भगवान् शिव और माँ पार्वती यहाँ जो बुग्यालों से ब्रह्म कमल आते है उन्ही से यहाँ अर्धनारीश्वर अवतार बनाया जाता है, मंदिर में एक जगह जिसे कोठ कहा जाता है जिसमे बुग्याल से आये ब्रह्म कमल लगाये जाते हैं और प्राण प्रतिस्था कर उस कोठ और ब्रह्म कमल में अर्धनारीश्वर अवतार के रूप में ब्रहम कमल लगाये जाते हैं , यहाँ की परंपरा है जेसे ही प्राण प्रतिस्था कर भगवन को विराजमान किया जाता है वेसे ही गाव के 200 परिवारों के सभी लोग यहाँ मंदिर में दो दिनों तक घी के दिए जलाये रखते हैं इन दो दिन कोई भी गाव वाला सोता तक नहीं है मंदिर में ही चांचडी भजन कीर्तन करने में लगे होते हैं इस फुलकोठ से ही श्राद्ध पक्ष भी सुरु हो जाते हैं, इस फुल कोठ में भक्तों की भारी भीड़ उमड़ी रहती है ,जोशीमठ के नरसिंह मंदिर और रविग्राम में मनाया जाता है फुलकोठ इसे फुल कोठ इस लिए काहा जाता है क्योंकि इस फुल कोठ से पहले दिन दोनों गाव से दो दो लोग पैदल नंगे पैर 3500 से 4000 मीटर की ऊंचाई पर जाते हैं और अगले दिन सुबह उठते ही नहाने के बाद ब्रह्म कमल बुग्यालों से निकाल के अपनी कनडियों में भरते हैं तत्पस्च्यात कनडीयां भर जाने के बाद ये लोग वापस अपने अपने गावं के लिए निकलते हैं जिस दिन ये लोग वापसी करते हैं उस दिन ये लोग सारे रास्ते भर कुछ भी नहीं खाते शाम को 9 बजे के आस पास ये लोग जोशीमठ अपने गाव पहुचते हैं, और जो ब्रह्म कमल का फुल ये लोग ले के आते हैं उन्हें मंदिर के कोठ में लगाया जाता है इसीलिए इसे फुल कोठ कहा जाता है

Friday, 3 July 2015

सरस्वती नदी विलुप्त हो जाती है अलकापुरी माणा में ,

             सरस्वती नदी विलुप्त हो जाती है अलकापुरी माणा में ,

सरस्वती नदी तिब्बत के सरस्वती सरोवर से निकलती है बद्रीनाथ से आगे माणा गावँ के भीम पुल के पास दिखाई देती है और यहाँ से कुछ ही दुरी पर निकलकर माणा गावँ में ही अलकापुरी में मिलती और यहाँ से विलुप्त हो जाती है जिसके बाद कहा जाता है की पर्यागराज इलाहबाद में निकलती है और सरस्वती का विलुप्त होने का कारन बेदव्यास जी महाभारत की रचना कर रहे थे व्यास गुफा जो की माणा गावँ के ऊपर है पर सरस्वती नदी का सोर बहुत ज्यादा था जिस कारन सरस्वती नदी को बेदव्यास जी ने श्राप दिया था तब से सरस्वती नदी विलुप्त हुई है ।

कमल नयन सिलोडि