महज बद्रीनाथ के द्वार बंद होने से बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद नहीं होते हैं बल्कि वर्षों से आ रही पौराणिक परंपरा! देवताओं और मनुष्य के बीच की पूजा के लिए होते हैं भगवान बद्रीविशाल के कपाट बंद,
बहूनि सन्ति तीर्थानि, दिवि भूमौ रसासु च,
बदरी सदृशं तीर्थ न भूतं न भविष्यति।।
भारतवर्ष
के चारधामो में सर्वश्रेस्ठ धाम बद्रीनाथ धाम के द्वार (कपाट) बंद होने से
बद्रीनाथ के कपाट बंद नहीं होते हैं बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद होने के लिए
पूरे विधि विधान से विजयदशमी के दिन देवताओं और मनुष्यों के बीच पंचायत
बैठती हैहालांकि मानवों द्वारा बद्रीनाथ धाम के सभामंडप में विद्वानों
द्वारा मुहूर्त निकाला जाता है और देवताओं द्वारा देवलोक में, बद्रीनाथ में
कब कपाट बंद होंगे इसके लिए पूरा विधि-विधान से दिन निकाला जाता है समय
निकाला जाता है 1-1 सेकंड का शुभ मुहूर्त देखा जाता है तब जाकर भगवान की
पूजा देवताओं को शोपने का मुहूर्त निकाला जाता है बद्रीनाथ धाम की विशेश
महिमा यह है कि यहां 6 महीने मनुष्य द्वारा पूजा की जाती है और 6 महीने
देवताओं के द्वारा पूजा की जाती है, ग्रीष्म काल में मानव यहां भगवान
बद्रीविशाल की पूजा करते हैं और शीतकाल में देवताओं द्वारा पूजा की जाती
है, यहां के पुजारी दक्षिण के नंबूदरी लोग होते हैं हालांकि बद्रीनाथ जी का
मंदिर उत्तर में स्थित है, यह परम्परा शंकराचार्य जी के काल से चली आ रही
है और दक्षिण के नंबूदरी लोगों को शंकराचार्य के वंसज कधन जाता है, यही
यहां के मुख्य पुजारी होते हैं और भगवान बद्रीनाथ जी ये सालिगराम विग्रह को
सिर्फ पुजारी ही छू सकते हैं,
vijay dashmi panchayat
वर्षों
से आ रही परंपरा के अनुसार भगवान बद्रीविशाल के कपाट बंद होने की पूरी
परंपरा पौराणिक काल से चली आ रही है यहां भगवान बद्रीविशाल के कपाट बंद
होने की अलग परंपरा है जहां कपाट बंद होने से पूर्व देश के अंतिम गांव माणा
की कुंवारी कन्याओं द्वारा कपाट बंद होने के दिन सुबह से दोपहर तक ऊन की
कंबल बनाई जाती है तो कपाट बंद होने के बाद भगवान बद्री विशाल को कुंवारी
कन्याओं द्वारा बनाई गई कंबल से ढका जाता है इस पर पूरी तरह से घी का लेप
लगाया जाता है और यह भगवान बदरीनाथ को शीतकाल में ठंड से बचाने के लिए किया
जाता है। और तब जाकर कपाट बंद होते हैं वही बद्रीविशाल के कपाट बंद होने
से पूर्व मां लक्ष्मी को भगवान बद्री विशाल के साथ बद्रीश पंचायत में
विराजमान किया जाता है हालांकि माँ लक्ष्मी बद्रीविशाल के साथ विराजमान ये
दर्शन श्रद्धालुओं को नही होते हैं, इसकी परंपरा भी बहुत अलग होती है यहां
के मुख्य पुजारी रावल जी जब मां लक्ष्मी को बद्री विशाल के साथ विराजमान
करते हैं तो खुद रावल जी मां लक्ष्मी के सखी रूप रखकर महालक्ष्मी के मंदिर
में जाते हैं इस दौरान रावल जी खुद महिला वस्त्र पहनकर महिला के रूप में
रहते हैं और उसके बाद भगवान बद्रीविशाल के कपाट बंद किए जाते हैं जैसे ही
कपाट बंद होते हैं सबसे भावुक पल यह होता है इस समय रावल जी 6 महीने बाद
भगवान बद्री विशाल से अलग हो रहे होते हैं और अब 6 महीने बाद भगवान
बद्रीविशाल से मिलना होता है जिस कारण रावल जी खुद मंदिर के गर्भगृह से
उल्टे पैर तो बाहर आते हैं लेकिन उनके आंखों के आंसू रुक नहीं पाते हैं यह
दृश्य सबसे लंबा चलता है मंदिर के गर्भ ग्रह से रावल जी के कमरे पर आने तक
मंदिर समिति के लोग श्रद्धालु हर कोई रावल जी को पकड़ कर क्योंकि वह उल्टे
पैर चल रहे होते हैं इसलिए उन्हें पकड़कर उन्हें उनके कमरे तक पहुंचाया
जाता है इसी के साथ भगवान बद्रीविशाल के कपाट भी शीतकाल के लिए बंद होते
हैं लेकिन पूरे कपाट बंद होने के दौरान यह सब से ज्यादा भावुक पल होता है
जिसमें जिसमें भगवान मनुष्य से 6 महीने के लिए दूर हो रहे होते हैं और इसका
भक्त और भगवान के बीच का रिश्ता क्या होता है यह सब इस समय के दर्शन से
पता चलता है जहां मुख्य पुजारी की आंखों में आंसू होते हैं वही मंदिर समिति
के कर्मचारी सहित श्रद्धालुओं के आंखों में भी आंसू देखने को मिलते हैं आज
भी बद्रीनाथ धाम में सैकड़ों वर्षों से चली आ रही परंपरा जीवित है और इसी
पल को देखने के लिए देश के कोने कोने से श्रद्धालु बद्रीनाथ धाम कपाट बंद
के अवसर पर पहुंचते हैं कपाट बंद होने के बाद बद्री विशाल की पूजा देवताओं
के हाथ में चली जाती हैं और यहां कपाट बंद के दिन जो दीपक जलता रहता है वह
दीपक कपाट खुलने के दिन भी उसी तरह जलता रहता है जो यह बताता है कि यहां
शीतकाल में भी पूजा निरंतर जारी थी, 1200 साल पुराना बद्रीनारायण का मंदिर
कई बार उजड़ा और कई बार बना लेकिन इस परंपरा पर आज तक कोई आंच नहीं आई है,
और आज भी नियमानुसार यहां यह अध्भुत अकल्पनीय अविश्वसनीय परम्परा देखने को
मिलती है,
mukhy pujari rawal ji
शीतकाल में यहां
के मुख्य पुजारी भगवान नारद जी होते हैं और बद्रीनाथ जी की बद्रीश पंचायत
पूरी तरह से बदल जाती है बद्रीनाथ में जहां ग्रीष्म काल में बद्री विशाल के
साथ उद्धव जी और कुबेर जी बद्रीश पंचायत में विराजमान होते हैं तो मां
लक्ष्मी मंदिर के बाहर सभामंडप में स्थित लक्ष्मी मंदिर में विराजमान होती
हैं लेकिन कपाट बंद के बाद बद्रीश पंचायत में भगवान बद्री विशाल के साथ मां
लक्ष्मी बद्रीनाथ जी के मंदिर के अंदर विराजमान होती हैं और भगवान कुबेर
और उद्धव जी बद्रीनाथ मंदिर से बाहर आ जाते हैं और पाण्डुकेस्वर मैं 6
महीने तक विराजमान रहते हैं यह इस लिए भी होता है क्योंकि कुबेर जी और
उद्धव जी भगवान बद्री विशाल के बड़े भाई हैं और पहाड़ों की परंपरा के
अनुसार जेठ (पति के बड़े भाई को जेठ कहते हैं) के सामने बहू उनके साथ नहीं
बैठ सकती है वही परंपरा बद्रीनाथ मंदिर में देखने को मिलती है यहां मंदिर
से माँ लक्ष्मी के जेठ उद्धव की और कुबेर जी मंदिर से बाहर निकलते हैं और
मां लक्ष्मी भगवान बद्रीविशाल के साथ विराजमान होती है
udhav ji
बद्रीनाथ
धाम जिस तरह सतयुग का धाम कहा जाता है यहां सतयुग में भगवान नारायण स्वयं
भक्तों दर्शन देते थे तो त्रेता मैं यहां पर सिर्फ साधु संतों को भगवान
दर्शन देते थे और कलयुग में यहां भगवान शालिग्राम की शिला पर वुराजमान
विग्रह के रूप में मूर्ति रूप में भक्तों को दर्शन देते हैं भगवान विष्णु
की विग्रह शालिग्राम शिला पर विराजमान है और यहां हर वर्ष लाखों श्रद्धालु
भगवान बद्रीविशाल के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं अब यहां कपाट बंद होने की
तैयारी पूरी हो चुकी है सबसे पहले भगवान गणेश जी के कपाट बंद होंते हैं
यानी कि गणेश जी की पूजा सबसे पहले देवताओं के पास शुरू होगी बद्रीनाथ धाम
में गणेश जी की पूजा कपाट बंद होने से 5 दिन पूर्व बंद किए जाते हैं वहीं
इसका उलट भगवानों के पास बद्री विशाल की पूजा जाने से पहले 5 दिन पहले
देवताओं के पास सबसे पहले गणेश जी की पूजा का जिम्मा दिया जाता है, जिसके
बाद दूसरे दिन यहां बद्रीनाथ में स्थित आदिकेदार के कपाट बंद होते हैं,
तीसरे दिन यहां खड़ग पुस्तक वेद ऋचाओं का पाठ बन्द होता है, और चौथे दिन माँ
ओएक्ष्मी पूजन और मुख्य पुजारी रावल जी द्वारा स्त्री रूप रखकर माँ
लक्ष्मी को न्यौता दिया जाता है, और अंतिम दिन भगवान मा लक्ष्मी बद्रीश
पंचायत में विराजमान होते ही बद्रीनाथ जी के कपाट बंद हो जाते हैं ,
dhrmadhikari badrinath pandit sri bhuwan chandr uniyal ji